Homeopinionबहनों के मायके आने से बचपन की यादें लौटती हैं

बहनों के मायके आने से बचपन की यादें लौटती हैं

राखी का इंतज़ार सभी बहनों को और भाइयों को बड़ी बेसब्री से होता है। सावन का महीना शरू होते ही बहाने और भाई एक दुसरे से मिलने के लिए उनकी नज़रें हर वक्त केलेंडर पर टिकी रहती है, बड़ी मुश्किल से महिना ख़तम होते नज़रें घडी पर टिक जाती कब मायके जाने का वक्त हो हम घर अपने भाइयों से मिलें बड़ी उक्सता रहती है भाई और बहन दोनों में राखी का इंतज़ार सभी बहनों को और भाइयों को बड़ी बेसब्री से होता है। सावन का महीना शरू होते ही बहाने और भाई एक दुसरे से मिलने के लिए उनकी नज़रें हर वक्त केलेंडर पर टिकी रहती है, बड़ी मुश्किल से महिना ख़तम होते नज़रें घडी पर टिक जाती कब मायके जाने का वक्त हो हम घर अपने भाइयों से मिलें बड़ी उक्सता रहती है भाई और बहन दोनों में एक दूसरे से मिलाने की l आखिर श्रावण के आख़िरी दिन पूर्णिमा को भाई बहन आपस में मिलते है । इस दिन पर पारंपरिक रूप से एक भाई का अपनी बहन को भरोसा दिलाता है कि चाहे जो हो जाए, मैं हूं ना! तू कभी भी कहीं भी अकेली नहीं है, चाहे जो हो जाए। लेकिन, इसके साथ ही यह सारी बहन-बेटियों के एक साथ अपने-अपने पीहर लौटने की ख़ुशी का उत्सव भी तो है!

यही बात राखी को सबसे सबसे प्यारा और ख़ूबसूरत त्योहार बनाती है कि आज कोई टीस नहीं। आज बेटियां भी घर पर होंगी और बहनें भी। आज घर फिर से पूरा होगा। वे सारे पंछी जो अपने-अपने आसमानों में उड़ानंे भर रहे हैं, उन्हें आबाद कर रहे हैं, उनसे आज यह घोंसला फिर से गुलज़ार होगा।

कृष्ण ही नहीं रुक्मिणी भी

कहते हैं सबसे पहले सुभद्रा ने कृष्ण के साथ रुक्मिणी को भी राखी बांधी थी, तब से बहन भाई को ही राखी नहीं बांधती, भाभी को भी भाई के पास बिठाकर यह सम्मान देती है। सच पूछो तो भाभी की रज़ा के बिना भाई से लिया वादा पक्का भी क्या समझा जाए! इस किंवदंती को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे करे कोई भी, होते उसके पीछे कृष्ण ही हैं, वैसे ही इस शुरुआत के पीछे भी अवश्य कृष्ण का हाथ ही रहा होगा।

उसी परंपरा से हम सब राखी मनाते हैं। भाभी यदि मायके नहीं गई हैं तो उनको भाई के साथ में बिठाया जाता है। सबसे पहले बहन भाई का तिलक करती है फिर समृद्धि का प्रतीक श्रीफल उसके हाथों में देती है, उसके बाद पहले उसके हाथों में राखी बांधती है और फिर यही क्रम भाभी के साथ होता है। भाभी की राखी चूड़ी पर बांधी जाती है, इसलिए उसे चूड़ा-राखी और कहीं-कहीं पर लुंबा-राखी कहा जाता है। इस तरह इस त्योहार के केंद्र में तो भाई और बहन ही हैं, पर इसके स्नेह की ज़द में पूरा परिवार होता है। 

जीवन हो जाता है सहज-सरल

हर रिश्ता एक ख़ास तरह की भावनात्मक ज़रूरत को पूरा करता है। भावनाएं मन को हल्का कर जीने को आसान बनाती हैं। और मन हल्का होता है कह देने से। हमारे मन में कितनी सारी बातें इकट्ठी होती रहती हैं जिन्हें हम कह देना चाहते हैं, लेकिन कह नहीं पाते। मन में यह रहता है कि कोई उन्हें समझेगा नहीं। ये बातें धीरे-धीरे जीवन में एक रूखापन लाने लगती हैं। राखी के इस त्योहार पर बहन-बेटियां कब मन के इस पौधे को पानी देकर हरा-भरा कर जाती हैं, पता ही नहीं चलता। कुछ बातें मां-बेटी की तो कुछ बातें भाई-बहनों की जो न तो और कोई कर सकता है न ही और किसी से की जा सकती हैं। उनकी आपस की ये बातें न जाने कितनी रुकावटों को दूर कर जीवन के प्रवाह को सहज कर देती हैं। पिता भी अपनी लाड़ली को पास पाकर प्रेमिल हो उठते हैं, सुनने लगते हैं। जो बात घर में पिता को कोई नहीं कह सकता उसे एक बेटी बड़े आराम से कह ही नहीं देती, मनवा भी लेती है।

क्या नहीं कर जाती हैं बहन-बेटियां राखी पर आकर! सचमुच, राखी के बहाने बारिश की तरह बहन-बेटियां घर-शहर का मौसम बदल देती हैं!

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